विदेश जाकर पढ़ने और नौकरी करने का सपना सभी देखते हैं। इसके लिए वो कड़ी मेहनत करते हैं। लेकिन विदेश में काम करनी वाली एक दंपत्ति ने अपनी नौकरी छोड़कर गांव चले आएं। दरअसल ये कहानी है देवकुमार नारायणन और उनकी पत्नी सारन्या की। देवकुमार नारायणन केरल के कासरगोड जिले के रहने वाले हैं।
4 चाल पहले गए थे UAE
देवकुमार और सारान्या ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से इंजीनयरिंग की थी। जिसके बाद दोनों से UAE जाने का फैसला लिया। वहां जाकर देवकुमार ने टेलीकॉम कंपनी में जॉब किया और सारन्या ने सिविल इंजीनियरिंग के तौर पर वाटरप्रूफिंग कंपनी ज्वाइन की। इस तरह से दोनों ने वहां चार साल तक नौकरी की लेकिन इस दौरान उनके मन में हमेशा खुद का बिजनेस शुरु करने की इच्छा थी। आखिरकार दोनों ने चार साल बाद अपनी नौकरी छोड़ दी और वापस गांव लौट आएं।
पपला कंपनी की शुरुआत
देव और सारान्या ने अपने गांव आकर पपला नाम से अपनी कंपनी शुरु की। उन्होने अपने बिजनेस का आइडिया बिल्कुल अलग रखा। इस कंपनी में सुपारी के पत्तों से टैबलवेयर. बैग्स से लेकर साबुन की पैकेजिंग वगैरह तैयार किए जाते थे। भारत के साथ-साथ विदेशों में इस सामान की मांग काफी है। अपनी मेहनत, लग्न और जज्बे से तैयार की गई इस कंपनी से उन्हे 1.5 लाख रुपए की कमाई होती है। इस कंपनी की शुरुआत होने से गांव की महिलाओं को बी रोजगार के अवसर मिलें। इस कंपनी में दोनों ने गांव की 7 जरुरतमंद महिलाओं को नौकरी भी दिया है।
दंपत्ति के फैसले से परिवार हुए नाराज
जब कोई बच्चा अपनी अच्छी नौकरी को छोड़ता है तो माता-पिता की नाराजगी का सामना करना पड़ता है। देव नारायणन और सारान्या के साथ भी ऐसा ही हुआ।द देवनारायणन बताते हैं कि वो नौकरी करते-करते थक चुके थे। वो अपना कुछ शुरु करना चाहते थे जिसमें वो किसी को रोजगार दे सकें। दोनों के परिजन नहीं चाहते थे कि वो यूएई में इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर गांव में संघर्ष करें। लेकिन दोनों ने जब मन में ढृढ़ निश्चय कर लिया था और अपने परिवार वालों को मना लिया। उन्होने अपने परिवार वालों के सामने शर्त रखी की अगर वो फेल होंगे तो वापस यूएई जाकर 9 से 5 की नौकरी ज्वाइन कर लेंगे।
इको फ्रेंडली प्रोडक्ट्स बनाने का आइडिया
सारान्या बताती हैं कि बारत आने से पहले उन्होने इंटरनेट पर काफी रिसर्च किया था। जिसमें उन्होने देखा कि कई देशों में प्लास्टिक पर बैन लगाया जा रहा है। इससे उन्हे आइडिया आया कि वो सुपारी के पत्तों से इको फ्रेंडली सामान बना सकती हैं। इस बिजनेस को दोनों ने केवल 5 लाख रुपए की लागत से सुरु किया था। उन्होने सोसल मीडिया पर अपने प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग खुद की जिससे उनके बजट में काम हो गया।
सोशल मीडिया का कमाल
सारान्या कहती हैं कि सोशल मीडिया के इस्तेमाल से उन्होने अपने प्रोडक्ट्स को जनता तक पहुंचाया। इस प्लेटफार्म के सहारे उन्होने काफी कम समय में बाजार पर कापी अच्छी पकड़ बन गई। जिससे उन्होने अपने बिजनेस के पहले साल में ही 10 लाख रुपए का निवेश किया।
पपला नाम के पीछे की कहानी
पपला कंपनी में फिलहाल सुपारी के पत्ते से कटोरी, चम्मच, प्लेट, साबुन कवर और आईडी कार्ड जैसे 18 सामान को बनाए जाते हैं। वो आगे कहती है कि इन सामानों को बनाने के लिए वो किसी भी पेड़ को नुकसान नहीं पहुंचाती बल्कि पेड़ के नीचे गिरे पत्तों से सामान बनाती है। इसके साथ ही वो किसी भी केमिकल का भी इस्तेमाल नहीं करती हैं। सारान्या ने अपने कंपनी के नाम की भी कहानी बताई। उन्होने कहा कि स्थानीय तौर पर सुपारी को पाला के नाम से जाना जाता है और अपने ब्रांड का नाम पपला इसलिए रखा जिससे लोग इससे एक जुड़ाव महसूस कर सकें। बता दें इस कंपनी में उतपादों की कीमत 1 रुपए से 100 रुपए के बीच है। इस प्रोडक्ट्स पर वो 50 पीसदी डिस्काउंट भी देते हैं।
परेशानियों के बाद मिली सफलता
कोरोना महामारी में सभी बिजनेस पूरी तरह से प्रभावित हुआ था। पपला कंपनी भी इससे बच नहीं पाई। दरअसल शुरुआती दिनों में देव और सारान्या अपने प्रोडक्ट्स को बाहर किसी थर्ड पार्टी के जरिए विदेशों में बेजा करते थे। कोरोना के कारण ये काफी प्रभावित हुआ। लेकिन जैसे ही कोरोना खत्म हुआ उन्होने स्थानीय बाजार पर भी अपनी पकड़ बनाई। सारान्या ने बताया कि दूसरी परेशानी मौसम की वजह से आती है। वो कहती हैं कि सुपारी के पत्ते सिर्फ 6 महीने ठीक से मिलते हैं उसके बाद पत्तों को जमा करने में कापी दिक्कत होती है।
भविष्य को लेकर प्लान
सारान्या कहती हैं कि दुनिया में प्लास्टिक को कई जगहों पर बैन किया जा रहा है। इसी को देखते हुए वो आगे नारियल के छिलके और केले के रेशे से भी इको फ्रेंडली सामान बनाने के बारे में विचार कर रहे हैं। देवकुमार और सारान्या अपनी कंपनी को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान देने की चाह रख रहे हैं।